

गोपाल झा.
इंकलाब-जिंदाबाद। महज दो शब्दों की जुगलबंदी का जादू। इसे सुनते ही माहौल में जोश भर जाता है। लोगों की भुजाएं फड़कने लगती हैं। दिलो-दिमाग पर नशा छा जाता है। जोश और जज्बा जगाने के लिए ‘एंटी बायोटिक’ का काम करता है यह नारा।
इंकलाब शब्द को बहुत सारे लोग हिंसक बताते हैं। वामपंथी विचारधारा से जोड़ते हैं। लेकिन यह सच नहीं है। कोई शब्द किसी विचारधारा को आकर्षित कर सकता है लेकिन शब्द को आप किसी सीमा में बांध नहीं सकते। शब्द तो संसार है, अनंत है। तभी तो भारत में शब्द को ब्रह्म कहा जाता है।

शहीद ए आजम भगत सिंह को ‘इंकलाब’ शब्द से बेहद लगाव था। भारत में ‘इंकलाब-जिंदाबाद’ का नारा बुलंद करने का श्रेय भगत सिंह को ही जाता है। उस वक्त ‘माडर्न रिव्यू’ नामक अखबार में ‘इंकलाब’ शब्द पर सवाल भी उठाए गए। संपादक रामानंद चट्टोपाध्याय ने संपादकीय लिखकर नाराजगी जताई। इस पर भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को क्षोभ हुआ। उस वक्त दोनों ही जेल में बंद थे। उन्होंने रामानंद को पत्र लिखा। उन्होंने खत में लिखा-‘आप जैसे परिपक्व व अनुभवी संपादक की रचना में दोष निकालना और प्रतिवाद करना धृष्टता होगी। लेकिन इस सवाल का जवाब देना हम जरूरी मानते हैं कि इस नारा से हमारा क्या मतलब है?’ भगत सिंह ने स्वीकार किया कि यह उनका नारा नहीं है बल्कि इसका उपयोग रूस के क्रांतिकारी आंदोलन में हुआ।

इंकलाब का मतलब क्रांति से है। आमतौर पर क्रांति शब्द को हिंसक या उत्तेजक माना जाता है, जो उचित नहीं। मुझे याद है, 2 अक्टूबर 1997 को जब हमने क्रांतिकारी मजदूर संघ का गठन किया तो हमसे सवाल किए गए कि दो अक्टूबर को महात्मा गांधी की जयंती है। गांधी अहिंसा के पर्याय हैं और इस दिन क्रांतिकारी मजदूर संघ का गठन? सवाल पूछने वाले पत्रकार ही थे। उस वक्त भी मैंने यही बताया था कि क्रांति का अर्थ हिंसा कतई नहीं है। क्रांति तो परिवर्तन का प्रतीक है।

भगत सिंह परिवर्तन के पक्षधर थे। एक बार उन्होंने कहा-‘पता नहीं क्यों, लोग परिवर्तन के विचार मात्र से कांप जाते हैं। इस कर्मण्य भावना की जगह क्रांतिकारी भावना जगाने की आवश्यकता है। जरूरी है, नई व्यवस्था पुरानी व्यवस्था की जगह ले ताकि दुनिया को बेहतर बनाया जा सके। हमारे लिए क्रांति शब्द का अर्थ विकास के लिए बदलाव की भावना विकसित करना है। इसी सोच के साथ हम ‘इंकलाब-जिंदाबाद’ का नारा बुलंद करते हैं।’
भले भगत सिंह के ये विचार करीब 95 साल पुराने हों लेकिन आज भी इसकी प्रासंगिकता बरकरार है। आजादी के 76 बरस बाद भी बहुत से लोग राजनेताओं व राजनीतिक दलों के ‘गुलाम’ दिखाई दे रहे। समाजवादी की जगह अब पूंजीवादी व्यवस्था फिर से शासन पर हावी दिखाई देने लगी है। श्रम कानूनों में संशोधन के नाम पर पूंजीवाद का पोषण किया जाने लगा है। श्रम शक्ति बिखर रही है। टूट रही है। पूंजीवाद ने ‘इंकलाब’ के नारे को निगल लिया हो जैसे। व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर सत्ता परिवर्तन मजाक सा लगने लगा है। सनद रहे, हुकूमतें तभी मनमानी करती हैं जब जनता अपने हितों को लेकर अनजान और निष्क्रिय रहती है। जागरूक जनता ही बदलाव लाने में सक्षम है। मजदूर दिवस भी यही संदेश देता है। बेशक।
-लेखक भटनेर पोस्ट मीडिया ग्रुप के चीफ एडिटर हैं