अकेलापन एक अदृश्य मगर घातक पीड़ा है, जो धीरे-धीरे व्यक्ति को अंदर से तोड़ देती है। आधुनिक जीवनशैली, रिश्तों में बढ़ती दूरियां और सामाजिक अलगाव इस समस्या को और गहरा बना रहे हैं। आत्महत्या के अधिकांश मामलों में अकेलापन प्रमुख कारण के रूप में उभर रहा है। जब इंसान अपनी भावनाओं को साझा करने वाला कोई सहारा नहीं पाता, तो अवसाद उसे घेर लेता है। इस समस्या को समझना और इसके समाधान की दिशा में कदम उठाना आज समाज की बड़ी आवश्यकता है। तन्हाई को पहचानना और समय पर सहयोग देना कई जिंदगियों को बचा सकता है। प्रस्तुत आलेख में आगाह कर रही हैं लेखिका डॉ. अर्चना गोदारा…..




डॉ. अर्चना गोदारा.
तुम्हें ऐसे नहीं जाना चाहिए था। तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था। तुम्हें किस बात की कमी थी? तुम्हें एक बार बताना तो चाहिए था। यह बातें घरवालों के द्वारा तब बोली जाती हैं जब उनका कोई अजीज उन्हें छोड़कर चला जाता है। वह जानने की कोशिश करते हैं कि ऐसा क्या हो गया, जिसकी वजह से उसे इस प्रकार का कदम उठाना पड़ा? जबकि अप्रत्यक्ष रूप से वे वास्तविक वजह को जानते हैं। क्यों की कोई भी घटना कभी भी अचानक से घटित नहीं होती। प्रत्येक घटना घटित होने से पहले कोई ना कोई अपना चिह्न जरूर देती है।
आत्महत्या एक जटिल तथा बहुआयामी सामाजिक व मनोवैज्ञानिक समस्या है, जिसके लिए केवल एक कारण नहीं होता है। यह एक मानसिक स्थिति की चरम सीमा होती है, जब व्यक्ति को अपनी पीड़ा का कोई समाधान या अंत नहीं दिखाई देता है । परिवार और समाज अक्सर इसे केवल एक व्यक्तिगत कमजोरी के रूप में ही देखता है, जबकि मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो यह विभिन्न सामाजिक, मानसिक और जैविक कारणों का परिणाम होता है।

दुनिया में आत्महत्याओं के मामले अब पहले की तुलना में बढ़ने लगे हैं। दुनिया भर में हर साल लगभग आठ लाख लोग आत्महत्या करते हैं, इनमें से लगभग एक लाख पैंतीस हजार यानी 17 फीसद भारत के निवासी हैं। कोई भी विचार कभी भी अचानक से नहीं आता है। हर विचार के पीछे कोई ना कोई घटना या वातावरण का प्रभाव होता है और उस वातावरण से प्रभावित होने वाले व्यक्ति या मन में इस प्रकार के विचार लाने वाले व्यक्ति के चेहरे और व्यवहार में किसी न किसी प्रकार का परिवर्तन अवश्य आता है जो कि सामान्य व्यवहार से बिल्कुल अलग होता है। परंतु उसके घर के सदस्य उसके उस व्यवहार को या तो अनदेखा कर देते हैं या फिर उसे डांट फटकार कर कह देते हैं कि इस तरह से कैसे हो रखे हो? क्या हाल बना रखा है? अपने आप को सही करो। जबकि वे सही वजह को जानने की कोशिश नहीं करते। यहीं से शुरुआत होती है व्यक्ति के नकारात्मक विचारों की या उसके दुनिया छोड़कर जाने जैसे विचारों की। वह मन ही मन चाहता है कि कोई उसे समझे उसकी समस्याओं को जाने और उसकी समस्या का निस्तारण करें। क्योंकि बहुत बार वह अपनी समस्याओं को स्वयं दूसरों के सामने नहीं रख पाता। यदि वह रखने कोशिश भी करता है और यह कहता है कि आज मन उदास है, आज मन नहीं लग रहा, घबराहट हो रही है, कुछ करने का मन नहीं करता , पढ़ाई में मन नहीं लगता, काम में मन नहीं लगता आदि बातों को बार बार दोहराता है। बात-बात पर भावुक हो जाता है और उसे बार-बार रोना आता है । ऐसी स्थिति में भी उसकी बातों को अनदेखा कर दिया जाता है। कभी कह दिया जाता है कि ज्यादा सोचो मत, ज्यादा सोचने से चिंताएं बढ़ती हैं।

इस तरह के विचार सुनने के बाद व्यक्ति अपने आप को अकेला महसूस करता है तथा उसका सभी व्यक्तियों पर से भरोसा उठ जाता है। वह महसूस करता है कि उसका साथ देने वाला कोई भी नहीं है। उसके लिए किसी के पास भी समय नहीं है। धीरे-धीरे यह अकेलापन उसके अंदर तनाव का रूप लेने लगता है। तनाव इतना अधिक बढ़ जाता है कि व्यक्ति मानसिक रूप से परेशान होने लगता है तथा अपने अंदर वह घबराहट को महसूस करता है। जब उसमें घबराहट अधिक होने लगती है तो वह अपने नजदीकी परिचित व्यक्ति को बात बताने की कोशिश करता है। परंतु इस बार भी यदि वह असफल होता है तो यह तनाव अपना भयंकर रूप ले लेता है और व्यक्ति ना चाहते हुए भी गलत कदम उठाने के लिए प्रेरित हो जाता है।
क्योंकि बहुत लंबे समय तक अवसाद (डिप्रेशन) से पीड़ित व्यक्ति आत्महत्या के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाते हैं। इसका एक उदाहरण जर्मनी के प्रसिद्ध फुटबॉल गोलकीपर रॉबर्ट एनके हैं। जो कि लंबे समय से अवसाद से जूझ रहे थे और वर्ष 2009 में उन्होंने ट्रेन के आगे कूदकर जान दे दी। बाद में पता चला कि वे कई वर्षों से मानसिक समस्याओं से संघर्ष कर रहे थे, लेकिन इस बात को वो किसी के साथ साझा नहीं कर पाए। किसी के साथ साझा नहीं कर पाना भी एक समस्या है क्यों कि यहीं से अकेलेपन की शुरुआत होती है। बातों को जाहिर नहीं कर पाना और उसे अपने तक ही रखना तनाव तथा अवसाद को बढ़ाता है।

युवा वर्ग परीक्षा और रोजगार का दबाव, पढ़ाई में अव्वल रहने का पारिवारिक दबाव, रातों-रात व्यवसाय में सफल होने का दबाव, अचानक से बहुत सारे पैसे कमाने के लालच में गलत काम करना, असफल प्रेम-संबंध, ब्रेकअप, एकतरफा प्यार या वैवाहिक संबंधों में धोखा खाने के बाद खुद को खत्म करने की कोशिश करता हैं। कई बॉलीवुड अभिनेताओं और मॉडल्स की आत्महत्याएँ भी इसी कारण मानी जाती हैं, जिनमें प्रत्युषा बनर्जी, समीर शर्मा, कुशल पंजाबी, शिखा जोशी, नफीसा जोसेफ, जिया खान और सुशांत सिंह राजपूत जैसे नाम शामिल हैं।

आत्महत्या जैसे कदम को रोकने के लिए मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों को खुले रूप से स्वीकारना जरूरी है। यदि कोई व्यक्ति उदास, निराश रहता है और आत्महत्या करने जैसे विचार रखता है, तो उसे शर्मिंदगी महसूस कराने के बजाय उसके साथ संवेदनशीलता एवं प्रेम से पेश आना चाहिए। परिवार, रिश्तेदार और दोस्तों को चाहिए कि वे अपने करीबी लोगों के मानसिक स्वास्थ्य पर ध्यान दें। क्यों कि संवाद, सहयोग और सहानुभूति आत्महत्या रोकने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
आत्महत्या से बचने के लिए व्यक्तियों को ज्यादा सोच-विचार की प्रवृत्ति से बचना चाहिए। अन्य व्यक्तियों से अधिक उम्मीद को नहीं रखनी चाहिए तथा प्रत्येक कार्य को स्वयं के द्वारा पूरा करने की आशा रखनी चाहिए, जो व्यक्ति के अंदर एक उत्साह को बनाए रखती है तथा किसी प्रकार के तनाव को आने से बचाती है। इसके अलावा काउंसलिंग और थेरेपी जैसे उपचार तनाव, अवसाद और आत्महत्या की प्रवृत्ति को रोकने में प्रभावी सिद्ध होते हैं। अधिकांश व्यक्ति अवसाद और चिंता को गंभीरता से नहीं लेते, जो बाद में दुःखद परिणाम का कारण बनते हैं। लेकिन सही समय पर चिकित्सकीय सहायता लेने, काउंसलिंग, थेरेपी करवाने से इस समस्या से बाहर निकला जा सकता है। इससे भी जरूरी है परिवार और दोस्तों का स्नेहपूर्ण व्यावहार, जो न जाने कितने लोगों की जिंदगी को बचा सकते हैं।
-लेखिका राजकीय नेहरू मेमोरियल पीजी कॉलेज हनुमानगढ़ में सहायक आचार्य हैं।
