मिथिला में इस दिन विश्राम करता है चूल्हा!

निराला झा.
जब अप्रैल की तपती दोपहरों में प्रकृति पसीने से भीगती है, तभी बिहार और मिथिला की धरती पर एक पर्व शीतलता की सौगात लेकर आता है, जुड़-शीतल। इस दो दिवसीय लोकपर्व की शुरुआत 14 अप्रैल को सतुआनी से होती है और समापन 15 अप्रैल को धुरलेख के उल्लास से। यह पर्व सिर्फ रिवाज़ नहीं, बल्कि मौसम से तालमेल और लोकजीवन की आत्मा से जुड़ा एक सुंदर आयोजन है।
जिस तरह छठ सूर्य की उपासना का पर्व है, उसी तरह जुड़-शीतल जल की पूजा का पर्व है। सतुआनी के दिन घर-घर में सत्तू, आम, चावल और ठंडे पेय से भोज तैयार होता है, बिना प्याज-लहसुन के, पूरी सादगी और श्रद्धा से।
मिथिला की महिलाएं इस दिन पूरे उत्साह से रसोई संभालती हैं। बेसन और चावल से बने व्यंजन, आम का पना, और सबसे खास, सत्तू से बना परंपरागत भोजन, जो न सिर्फ स्वादिष्ट होता है बल्कि गर्मी में स्वास्थ्यवर्धक भी। कहते हैं, ‘जो सतुआनी के दिन सत्तू खाता है, वह साल भर भूखा नहीं सोता।’


सतुआनी के दिन घर के आँगन में तुलसी के पौधे के पास एक मिट्टी का घड़ा बांधा जाता है, जिससे उसमें रोज़ जल चढ़ाया जा सके। मान्यता है कि इससे पितरों की प्यास बुझती है और घर में शांति बनी रहती है।
कई घरों में कुलदेवता की पूजा होती है, आटा, सत्तू, आम्रफल, शीतल जल और पंखा अर्पित कर उनसे आशीर्वाद लिया जाता है। खास बात यह कि कुलदेवी के पास रखे जल से माताएं अगली सुबह अपने बच्चों के सिर पर थापा देती हैं, ताकि उनका तन-मन साल भर शीतल बना रहे।
पर्व का दूसरा दिन, धुरलेख, अपने आप में अनूठा है। सुबह होते ही गाँव के कुएं, तालाब और जलाशयों की सफाई शुरू हो जाती है। स्त्री-पुरुष, बालक-वृद्ध, सभी जाति, धर्म और वर्ग से ऊपर उठकर एकजुट होते हैं।
सफाई के इस महाअभियान के बीच होता है एक मजेदार खेल, धुड़ खेल। मैथिली में ‘धुड़’ यानी धूल या कीचड़, और इस दिन लोग एक-दूसरे पर कीचड़ फेंककर उत्सव मनाते हैं। यह कीचड़ सिर्फ मिट्टी नहीं, आपसी प्रेम, हास्य और लोक सामूहिकता का प्रतीक बन जाता है।


चूल्हा इस दिन विश्राम करता है। महिलाएं रसोई की सफाई करती हैं, और दोपहर बाद पूरे गांव में साफ-सफाई और सामाजिक समरसता का भाव रहता है। जुड़-शीतल सिर्फ एक त्योहार नहीं, जीवन के ताप को हरने का लोकपाठ है। यह हमें याद दिलाता है कि सादगी, सामूहिकता और प्रकृति के साथ समन्वय ही जीवन को ठंडक और स्थिरता दे सकता है।
आज जब दुनिया जल संकट और सामाजिक विघटन से जूझ रही है, ऐसे में जुड़-शीतल जैसे पर्व संवेदनशील जीवनशैली की प्रेरणा देते हैं। आइए, इस बार जब आप सत्तू खाएं या बच्चों के सिर पर शीतल जल डालें, तो याद रखें, आप एक परंपरा नहीं, बल्कि प्रकृति के प्रति कृतज्ञता प्रकट कर रहे हैं।

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