शहरों की शक्ल लेने लगे हैं गांव!

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ओम पारीक.
कभी गांव का नाम सुनते ही मन में एक चित्र उभर आता था। कच्ची गलियां, कांटों से भरे बाड़े, गुवाड़ में बैठे पशु, पेड़ की छांव में सुस्ताती दोपहरें, गोबर थापती महिलाएं, सिर पर घड़ा उठाए कुएं से पानी भरती बहनें, खपरैल की झोंपड़ियां, और दालान में बैठकर हुक्के की गुड़गुड़ाहट के साथ होती लंबी पंचायतें। आज भी आंखें बंद कर लूं तो वो बचपन की स्मृतियां किसी सजीव चित्रकथा की तरह उभरने लगती हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि वो गांव अब नहीं रहे…
मैं खुद गांव के बदलते हुए इस सफर का साक्षी रहा हूं। एक नहीं, दो नहीं, पूरे पांच दशकों का गवाह। मेरा गांव अब वैसा नहीं रहा जैसा मेरी मां की कहानियों में हुआ करता था। आज जब कोई शहर का आदमी गांव की कल्पना करता है, तो अक्सर वह उसी पचास साल पुरानी तस्वीर में उलझा रहता है, मगर धरातल पर गांव अब शहरों की सी शक्ल ले चुके हैं।
आज गांव के हर कोने में बदलाव की हवा बह रही है। पंचायत मुख्यालयों पर राजीव गांधी सेवा केंद्र में इंटरनेट की सुविधा है, जिससे दिल्ली से लेकर जयपुर और जिला परिषद तक सीधा संवाद संभव है। गांव में बिजली-पानी की स्थिति पहले से कहीं बेहतर है, स्वास्थ्य सेवाएं मौजूद हैं, स्कूल हैं, पशु चिकित्सा केंद्र हैं, ग्राम सेवा सहकारी समितियां हैं, और तो और, गिरदावर और पटवार के ऑफिस भी अब गांव के नजदीक ही उपलब्ध हैं।
मुझे वो दिन आज भी याद हैं जब हमारे गांव में पहली बार बिजली आई थी। उस दिन हम बच्चों की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। अब तो हर घर में बिजली है, पंखे, कूलर, फ्रिज, टीवी और कहीं-कहीं तो एसी भी लगे हुए हैं। पहले जहां लोग टांके या कुओं से पानी भरते थे, अब हर घर में नल से पानी आ रहा है। प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री आवास योजना ने गरीबों के कच्चे घरों को पक्के मकानों में बदल दिया है।
अब गांव वाले किसी बात में शहर वालों से पीछे नहीं हैं। गांव में सब्जी उत्पादन से लेकर फूलों की खेती, डेयरी से लेकर शहद उत्पादन और पोल्ट्री फार्म तक सब कुछ हो रहा है। जाखड़ावाली के पास मैंने एक किसान को गुलाब के खेत में काम करते देखा था, वो खेत नहीं, मानो इत्र की बगिया थी। उसी गांव में किन्नू, अनार जैसे फलों की खेती भी हो रही है।
अब तो मशीनें खेती के साथी बन चुकी हैं। ट्रैक्टर, थ्रेशर, हार्वेस्टर, पिकअप, मोटर साइकिल और हर गांव में जेसीबी मिल जाती है। एक जमाना था जब बैल से हल जोतना होता था, अब तो बटन दबाओ और मशीन चालू। ये गांव की मशीनी क्रांति है जिसने गांवों को समय और मेहनत दोनों में आगे कर दिया।
गांव अब शहरों पर निर्भर नहीं रहे। खासकर नहरी क्षेत्रों में जीवन स्तर तो इतना ऊपर चला गया है कि हर घर में शौचालय, टीवी, कूलर और मोबाइल जैसी सुविधाएं सामान्य हैं। गांवों के युवक अब अपने गांव में रहकर भी नौकरी और व्यापार कर रहे हैं। शहरों के पास बसे गांवों के लोग तो तहसील और कस्बों में दुकानें चला रहे हैं और बच्चों की पढ़ाई भी अच्छे से हो रही है।
एक बात जो मुझे हमेशा सोचने पर मजबूर करती है, आज अगर कोई शहरी आदमी गांव में आकर काम करे, तो शायद वह तनावग्रस्त हो जाए, लेकिन गांव का लड़का शहर में जाकर तेज़ी से काम पकड़ लेता है। उसका आत्मविश्वास, मेहनत की आदत और जमीनी समझ उसे कहीं भी टिकने और चमकने की ताकत देती है।
हां, अपवाद हर जगह होते हैं। गांवों में बढ़ती नशे की प्रवृत्ति एक चिंताजनक पहलू जरूर है, और ये भी शहरों से ही गांवों तक आई ‘सौगात’ है। लेकिन इसके अलावा सामाजिक रूप से अब गांवों में जातिगत खाई कम हो रही है, राजनीति की समझ बढ़ी है और लोग अब ‘जात’ से ज्यादा ‘व्यवसाय और आय’ को महत्व देने लगे हैं।
गांव अब वो नहीं रहे जहां पोस्टमैन महीने में एक बार आता था। अब हर सुबह अखबार आता है, एटीएम से पैसा निकालने गांव का बूढ़ा भी जाता है और मोबाइल के जरिए दुनिया की हर जानकारी गांव के आंगन तक पहुंच रही है। डिजिटल भारत का सबसे सुंदर रंग अगर कहीं बिखरा है, तो वह गांवों की माटी में है।
आज जब मैं अपने गांव की ओर देखता हूं, तो गर्व महसूस होता है। ये वही गांव है जिसकी कल्पना राष्ट्र निर्माताओं ने पंचायती राज में की थी। अब वह सपना मूर्त रूप ले चुका है। अब गांवों में उजास है, उम्मीदें हैं, और सबसे बड़ी बात, आत्मनिर्भरता है। अब वो गांव नहीं रहे… और शायद, यही बदलाव का सबसे खूबसूरत चेहरा है।
-लेखक रावतसर के वरिष्ठ पत्रकार हैं

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