





ओम पारीक.
राजस्थान की असल गर्मी क्या होती है, ये वही जानता है जिसने जेठ की लू को अपनी देह पर झेला हो, जिसने 50 डिग्री तापमान में रेत के तपते समंदर को पार किया हो, और सर्दियों में माइनस के तापमान में ओस की चादर ओढ़कर रातें बिताई हों। बीकानेर संभाग का ज़िक्र आते ही तपता रेगिस्तान, धूल भरी आंधियां और गर्मी में झुलसती धरती की तस्वीर आंखों में तैरने लगती है। आज भले ही नहरों के आने से हवा में थोड़ी नमी आ गई हो, लेकिन 1960 के दशक तक हालात इतने कठिन थे कि लोग जेठ के महीने में घर से बाहर निकलते वक्त रूमाल में प्याज बांधकर चलते थे, ताकि लू से बच सकें। उस वक्त बिजली किसी किसी गांव में होती थी, लेकिन कूलर और पंखे की हवा अमीरों के नसीब में ही थी।

मकानों की खिड़कियों पर घास की टाट बांधकर पानी डाला जाता था ताकि भीतर की हवा थोड़ी ठंडी हो जाए। घर के बड़े बुज़ुर्ग दिन में झोंपड़ी की शरण लेते थे, क्योंकि मिट्टी की दीवारें गर्मी रोकने में थोड़ी कारगर होती थीं। गांव के बच्चे जब गर्म रेत में चलकर स्कूल जाते, तो उनके पैरों के तलुए जल जाते। तब वे किसी जानवर के ताजे गोबर में पैर डालकर राहत पाते थे। छाया की तलाश में लोग दीवारों से सटकर चलते और जहां कहीं पेड़ दिखा, वहीं सुस्ताने बैठ जाते।
रातें भी चैन से नहीं गुजरती थीं। खाट पर सोते वक्त सुबह उठते तो दो किलो बालू रेत चद्दर पर बिखरी मिलती। उस समय सिर्फ एक चीज ठंडी मिलती, कोरे घड़े का पानी। जितनी तेज लू चलती, उतना ही ठंडा पानी घड़े से निकलता। पुराने घड़े में वही पानी गर्म लगता था, इसलिए नए घड़े हर सीजन में खरीदे जाते।
गर्मी में खाना भी मौसम के मुताबिक होता था, छाछ, राबड़ी, प्याज, भुना चना, भुने हुए मातिरा के बीज। ये सब पेट को ठंडा रखते और प्यास से राहत दिलाते। गांव के बाहर तालाबों के किनारे खेजड़ी, पीपल और बेरी के पेड़ों के नीचे मनुष्य और मवेशी सब राहत पाने को जमा हो जाते थे।
खेजड़ी की सांगरी का किस्सा भी बड़ा रोचक है। जब भूख से बेहाल लोग पकने से पहले ही खेजड़ी के खोखे खा जाते, तो पेट में गड़बड़ हो जाती। तब गांव के बुजुर्ग कहते, ‘इन्हें उल्लाक लिया है, पकी नहीं थी सांगरी।’
आषाढ़ माह आते-आते पंजाब की ओर से काली पीली आंधियां चलतीं, उनके आगे गिद्ध, बाज और शिकरा उड़ते दिखते। ये ठंडी हवाएं लातीं और बरसात का संकेत देतीं। लेकिन बरसात के बाद हवा बंद हो जाती, जिससे उमस इतनी बढ़ती कि रात को मकानों से गर्म भाप निकलती और चैन की नींद भी हराम हो जाती।
इन्हीं उमस भरे दिनों में बिच्छू, सांप और कीड़े मकानों से बाहर निकल आते। फिर लालटेन लेकर रात भर उन्हें मारने का अभियान चलता। अगर किसी को सांप या बिच्छू काट लेता, तो उसका इलाज एक जीवन-मरण का संघर्ष बन जाता। बरसात के पानी से ‘नारू रोग’ फैलता और फोड़े-फुंसी निकलते। पूरे गांव में बदबू और बीमारी का माहौल हो जाता।
आज का समय देखिए, खेत-ढाणी तक बिजली, हर घर में कूलर, कई जगह एसी। खाने-पीने की चीजों में आइसक्रीम की कई किस्में, ठंडे पेय, मिनरल वाटर। हर वाहन एसी से लैस। फिर भी दो हफ्ते की गर्मी में मिजाज उखड़ जाता है। लोग पहाड़ों की ओर भागते हैं। ये आज की पीढ़ी उस दौर की सच्चाई सुनकर चौंक जाती है।
सच तो यह है कि पहले गर्मी झेलने का एक ही उपाय था, सहनशक्ति। अब गर्मी नहीं, बल्कि नमी वाली उमस ज्यादा सता रही है और इसका कारण है कंक्रीट के जंगल। हरियाली घट गई है, पेड़ कट गए, और जगह-जगह कांक्रीट के मकान बन गए, जिनमें गर्मी जमती है और फिर वही दीवारें रात को गर्म हवा छोड़ती हैं।
छह ऋतुएं अपने आप में जीवन को परखने वाली विधाएं हैं। जो प्रकृति के अनुसार खुद को ढालता है, वही यहां के मौसम का मजा उठा सकता है। लेकिन जब तक हम शहरीकरण के इस अंध दौड़ को नहीं समझेंगे, तब तक यह उमस और बढ़ेगी।
इसलिए अब वक्त आ गया है कि हम पुराने दौर की सीख को फिर से अपनाएं, पेड़ लगाएं, मिट्टी के घरों का सम्मान करें, और प्रकृति के साथ तालमेल बिठाएं। गर्मी से बचाव सिर्फ मशीनों से नहीं, समझदारी से भी हो सकता है।
-लेखक ठेठ मिजाज के वरिष्ठ पत्रकार हैं



