हर बच्चा खास: कम नंबर, कोई कमज़ोरी नहीं!

गोपाल झा.
मई-जून का महीना गर्म हवाओं, तपते सूरज और लू के थपेड़ों के लिए प्रसिद्ध है, लेकिन इसी महीने में बच्चों के जीवन में वह पल आता है, जब उनके पूरे वर्ष की मेहनत का मूल्यांकन होता है। यह समय केवल परीक्षा परिणामों का नहीं, बल्कि आत्मचिंतन, आत्मविश्वास और आगे की दिशा तय करने का भी होता है। विशेषकर 10वीं, 12वीं और स्नातक की पढ़ाई पूरी करने वाले छात्रों के लिए यह समय निर्णायक मोड़ जैसा होता है। यही वह क्षण है जब समाज, परिवार और स्वयं छात्र यह तय करने लगते हैं कि उन्हें आगे क्या करना है, किस दिशा में बढ़ना है और अपने भविष्य को किस स्वरूप में गढ़ना है।
लेकिन अफसोस, बीते कुछ वर्षों में हमने ज्ञान का मूल्यांकन अंकों के आधार पर करना शुरू कर दिया है। जो छात्र अधिक अंक लाते हैं, उन्हें होनहार, प्रतिभाशाली और सफल माना जाता है, वहीं जो कम अंक लाते हैं, वे उपेक्षा के पात्र बन जाते हैं। यह प्रवृत्ति केवल सामाजिक दृष्टिकोण की नहीं, बल्कि मनोवैज्ञानिक दवाब की भी जननी है, जो बच्चों को भीतर तक हिला देती है।
शिक्षा का उद्देश्य केवल नंबर नहीं
शिक्षा का मूल उद्देश्य बच्चे के भीतर छिपी प्रतिभा को पहचानना और उसे विकसित करना है, न कि केवल उसे अंकों की दौड़ में शामिल करना। अंक किसी विद्यार्थी की एक सीमित अवधि की तैयारी का परिणाम हो सकते हैं, लेकिन वे उसकी समग्र योग्यता और क्षमता को नहीं दर्शाते। यह बात मैं इसलिए भी कह रहा हूँ क्योंकि मेरे जीवन में कई ऐसे आईएएस और आईपीएस अधिकारी आए हैं, जिन्होंने स्कूली जीवन में औसत प्रदर्शन किया था। कुछ ने तो 10वीं और 12वीं में केवल 55 फीसद अंक प्राप्त किए थे, और एक आईएएस अधिकारी तो पांचवीं कक्षा में अनुत्तीर्ण हो गई थीं। उस असफलता ने उन्हें तोड़ने की बजाय एक नई ऊर्जा दी। उन्होंने अपने भीतर झांककर देखा, आत्ममंथन किया और नए संकल्प के साथ पढ़ाई में जुट गईं। परिणामस्वरूप, आज वे देश की सेवा कर रही हैं।


कम अंक कोई अपराध नहीं
यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि समाज में आज भी कम अंक लाने वाले बच्चों को असफल और नाकारा समझा जाता है। उन्हें तानों का सामना करना पड़ता है, अपनों से उपेक्षा मिलती है और कई बार अवसाद जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है। लेकिन क्या वास्तव में अंकों से किसी की प्रतिभा या भविष्य का आकलन किया जा सकता है? सच्चाई तो यह है कि कम अंक आने पर न तो बच्चों को घबराना चाहिए और न ही अभिभावकों को निराश होना चाहिए। बल्कि यह एक अवसर है आत्मविश्लेषण का। यह सोचने का कि कहां चूक हुई, और अगली बार उसे कैसे सुधारा जाए। जिस तरह एक किसान फसल खराब होने पर बीज, भूमि और मेहनत के तरीके पर पुनर्विचार करता है, उसी प्रकार विद्यार्थियों को भी अपनी रणनीति पर काम करना चाहिए।
सफलता का कोई एक रास्ता नहीं
सफलता का मार्ग एकरूप नहीं होता। किसी के लिए वह शैक्षणिक उत्कृष्टता से होकर गुजरता है, तो किसी के लिए व्यावहारिक ज्ञान, नेतृत्व क्षमता, रचनात्मकता या तकनीकी कौशल उसका माध्यम बनते हैं। जीवन में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहां कम शैक्षणिक योग्यता के बावजूद लोगों ने असाधारण सफलताएं प्राप्त की हैं। महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन स्कूल में औसत छात्र थे। थॉमस एडिसन को स्कूल में मंदबुद्धि कहकर निकाल दिया गया था। लेकिन उनकी लगन, जिज्ञासा और निरंतर प्रयास ने उन्हें विश्व पटल पर पहचान दिलाई।


अभिभावकों की भूमिका
बच्चों के जीवन में अभिभावकों की भूमिका निर्णायक होती है। जब बच्चे परीक्षा परिणाम लेकर घर लौटते हैं, तो उनका चेहरा मां-बाप की प्रतिक्रिया पर टिका होता है। यदि मां-बाप उन्हें विश्वास दिलाएं कि परिणाम कुछ भी हो, वे उनके साथ हैं, तो बच्चे किसी भी परिस्थिति का सामना कर सकते हैं। लेकिन यदि वहीं उपेक्षा, ताने और तुलना की भाषा मिलती है, तो बच्चा भीतर से टूट जाता है। अभिभावकों को चाहिए कि वे बच्चों को समझें, उनकी कमियों पर बात करें, उन्हें सुधारने के उपाय सुझाएं और प्रेरित करें। बच्चे जब देखते हैं कि उनके माता-पिता उनके साथ खड़े हैं, तो उनके भीतर एक अजेय आत्मविश्वास उत्पन्न होता है।
जीवन की धूप-छांव
सफलता और विफलता जीवन के दो पहलू हैं, धूप और छांव की तरह। कोई भी व्यक्ति हमेशा सफल नहीं रहता और न ही कोई हमेशा असफल रहता है। जो व्यक्ति एक बार हारता है, वही बार-बार प्रयास करता है और एक दिन जीत हासिल करता है। इसीलिए, विद्यार्थियों को चाहिए कि वे निराश न हों, बल्कि अगली बार बेहतर करने का संकल्प लें। इसी बात को मैथिलीशरण गुप्त की प्रसिद्ध कविता अत्यंत प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त करती है। जब भी मन निराश हो, आत्मबल डगमगाए, यह कविता नई ऊर्जा देती है,
नर हो, न निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो
जग में रह कर कुछ नाम करो।
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो!
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो।
कुछ तो उपयुक्त करो तन को।
नर हो, न निराश करो मन को।
संभलो कि सुयोग न जाए चला,
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला!
समझो जग को न निरा सपना,
पथ आप प्रशस्त करो अपना।
अखिलेश्वर है अवलम्बन को।
नर हो, न निराश करो मन को।
जीवन एक यात्रा है, जिसमें हर पड़ाव कुछ सिखाता है। परिणाम चाहे जैसे हों, वे अंत नहीं होते, बल्कि एक नए आरंभ का संकेत होते हैं। बच्चों और अभिभावकों को यह समझना होगा कि परीक्षा के अंक महत्त्वपूर्ण हो सकते हैं, लेकिन वे संपूर्ण जीवन का मूल्यांकन नहीं हैं। आत्मविश्वास, परिश्रम, निरंतर प्रयास और सकारात्मक सोच, यही सच्चे ज्ञान और सफलता के वास्तविक स्तंभ हैं।
-लेखक भटनेर पोस्ट मीडिया ग्रुप के चीफ एडिटर हैं

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