‘थरूर’ की उलझन और कांग्रेस की अनकही कहानी

गोपाल झा.
भारतीय राजनीति की एक उदात्त आवाज़, एक बहुपठित विद्वान, और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत की मुखर छवि, यह परिचय किसी और का नहीं, कांग्रेस के वरिष्ठ नेता शशि थरूर का है। लेकिन इन दिनों एक प्रश्न गूंज रहा है, क्या थरूर कांग्रेस में रहेंगे या विदा ले लेंगे?
इस प्रश्न की गंभीरता तब और बढ़ जाती है जब थरूर स्वयं यह स्वीकार करते हैं कि पार्टी नेतृत्व से ‘कुछ मतभेद’ हैं, और उन्हें अब ‘बंद कमरे में’ सुलझाया जाना चाहिए। यह वाक्य केवल एक कूटनीतिक बयान नहीं, बल्कि एक अनुभवी राजनेता की विवश पुकार है, जो पार्टी के भीतर संवाद के स्पेस की तलाश में है।
मीडिया अटकलें तेज़ हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शशि थरूर की विद्वता से प्रभावित हैं, खासकर ‘ऑपरेशन सिंदूर’ जैसे अंतरराष्ट्रीय मसलों पर थरूर द्वारा सरकार के पक्ष में दिखाई गई मुखरता से। यह कोई छुपी बात नहीं कि थरूर विदेश नीति के ज्ञाता हैं, संयुक्त राष्ट्र में उनके अनुभवों ने उन्हें वैश्विक राजनीति की महीन परतों का गहन विश्लेषक बना दिया है। ऐसे नेता यदि विपक्ष में हों, तो सरकार की नीतियों की बारीक समीक्षा कर सकते हैं। और अगर सरकार में हों, तो वैश्विक मंचों पर देश के लिए आवाज़ बुलंद कर सकते हैं।
लेकिन सवाल यह है कि एक ऐसे नेता को, जो अपनी बौद्धिकता, साफ़गोई और ईमानदारी के लिए जाना जाता हो, कांग्रेस पार्टी वह जगह क्यों नहीं दे पा रही जिसकी वह पात्रता रखते हैं?


शशि थरूर का पार्टी से मोहभंग एक दिन में नहीं हुआ। यह प्रक्रिया उस समय शुरू हुई जब कांग्रेस के 23 नेताओं ने पार्टी आलाकमान को पत्र लिखकर संगठन में व्यापक सुधारों का सुझाव दिया था। यह सुझाव लोकतांत्रिक भावना से प्रेरित थे, न कि किसी बगावती सोच से। लेकिन उस समय नेतृत्व ने उन्हें नज़रअंदाज़ किया। प्रतिक्रिया में न कोई संवाद हुआ, न आत्ममंथन। नतीजतन, कुछ नेता पार्टी छोड़ गए, और जो रहे, वे आज प्रश्नों की भट्टी में तप रहे हैं।
थरूर ने जब अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ा, तब भी उन्हें एक समान मंच नहीं मिला। पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र की बात करने वाले राहुल गांधी और उनके रणनीतिकार उस समय मौन साधे रहे। क्या यह दोष शशि थरूर का था कि वे कांग्रेस के संविधान के अनुरूप चुनाव मैदान में उतरे?


सवाल सिर्फ थरूर की उपेक्षा का नहीं, बल्कि एक व्यापक राजनीतिक संस्कृति की असफलता का है। कांग्रेस में नेतृत्व का केंद्रीकरण, संवाद की कमी, और असहमति के प्रति असहिष्णुता ने पार्टी को कमजोर किया है। यह विडंबना ही है कि जिस राहुल गांधी ने यूथ कांग्रेस और एनएसयूआई में चुनाव प्रक्रिया का समर्थन किया, वही अपने वरिष्ठ नेताओं को खुला मंच देने से कतराते हैं। और उस प्रयोग का परिणाम यह हुआ कि यूथ कांग्रेस गुटबाज़ी का अड्डा बन गई।
इस बीच, राहुल गांधी एक सशक्त विपक्ष के रूप में उभरे हैं। वे लोकसभा में सरकार की गलत नीतियों पर तीखा प्रहार करते हैं। बेरोजगारी, महंगाई, संस्थानों की स्वायत्तता, किसानों के मुद्दे, हर मोर्चे पर वे मुखर हैं। लेकिन विपक्ष का यह मुखर चेहरा तब अधूरा लगता है जब पार्टी का अपना घर ‘बिखर’ रहा हो। थरूर जैसे नेताओं की अनदेखी और पुराने सहयोगियों के लगातार मोहभंग से पार्टी के भीतर एक ठंडी असहमति फैल रही है।


एक राजनीतिक दल, विशेषकर वह जो स्वतंत्रता संग्राम का वाहक रहा हो, उसके लिए केवल चुनावी जीत ही नहीं, बल्कि संगठनात्मक सामंजस्य भी उतना ही महत्वपूर्ण है। कांग्रेस को समझना होगा कि विविधता और असहमति किसी भी जीवंत संगठन की पहचान होती है। फिर यही तो कांग्रेस की खासियत रही है। शशि थरूर जैसे नेता, जो खुले संवाद के हिमायती हैं, वे पार्टी के लिए बोझ नहीं, बल्कि अवसर हैं।
यदि कांग्रेस को अपनी खोई हुई ज़मीन वापस चाहिए, तो उसे क्षेत्रीय नेताओं पर विश्वास जताना होगा। क्षेत्र विशेष के मामलों में उन्हें निर्णय लेने की स्वतंत्रता देनी होगी। विचारधारा पर अडिग रहकर भी संगठन को लचीलेपन की ज़रूरत है। नेतृत्व की निर्णय प्रक्रिया को एक पक्षीय न बनाकर संवादात्मक बनाना होगा। तभी पार्टी भीतर से मजबूत हो पाएगी।
क्योंकि लोकतंत्र में सबसे बड़ी शक्ति विश्वास होती है, नेताओं पर, कार्यकर्ताओं पर, और आम जनता पर। कांग्रेस को अपने ही लोगों पर विश्वास करना होगा। शशि थरूर रहेंगे या जाएंगे, यह निर्णय आने वाला समय बताएगा। लेकिन अगर कांग्रेस अब भी नहीं चेती, तो एक नहीं, कई थरूर पार्टी से रुखसत लेंगे। और तब शायद नेतृत्व को यह समझने में देर हो चुकी होगी कि संवाद की कमी केवल एक नेता को नहीं, पूरे संगठन को खोखला कर देती है।
कांग्रेस के लिए आज सबसे बड़ी जरूरत यही है, विरोधियों से लड़ने से पहले अपनों को अपनाए। और यह तभी संभव होगा, जब नेतृत्व न केवल सुनने की कला सीखे, बल्कि समझने की उदारता भी अपनाए।
-लेखक भटनेर पोस्ट मीडिया ग्रुप के चीफ एडिटर हैं

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