





डॉ. एमपी शर्मा.
राजनीति शब्द सुनते ही किसी ज़माने में सेवा, त्याग, विचारधारा और नेतृत्व की छवि बनती थी। लेकिन अब यह दृश्य तेजी से बदल रहा है। आज की राजनीति में न विचार बचे हैं, न ही सिद्धांत। रह गई है तो सिर्फ सत्ता की लालसा, व्यक्तिगत स्वार्थ और जोड़-तोड़ की राजनीति। सवाल यह है कि क्या हम इस गिरावट को केवल टीवी पर बहसों के माध्यम से देखते और भूल जाते रहेंगे? या फिर जनता की भूमिका अब निर्णायक मोड़ पर है? राजनीति की आत्मा होती है विचारधारा, एक दृष्टिकोण, एक सोच जिसके इर्द-गिर्द पार्टी और नेता अपना चरित्र गढ़ते हैं। लेकिन आज स्थिति यह है कि कौन किस विचारधारा का प्रतिनिधित्व करता है, कहना मुश्किल हो गया है। कल तक जो नेता किसी दल का घोर विरोध कर रहा था, आज उसी दल के मंच से तालियां बजा रहा है। जो कल किसी के खिलाफ गालियां देता था, आज उसके साथ सेल्फी लेता नजर आता है। नेताओं की यह विचलनशीलता दर्शाती है कि आज राजनीति में कोई स्थाई विचार नहीं, न ही दोस्त या दुश्मन, बस सत्ता की कुर्सी ही सबसे बड़ा आदर्श बन चुकी है। इससे बड़ी विचारधारात्मक गिरावट और क्या हो सकती है?
विचारधारा नहीं, अवसरवाद का युग
नेता अब पार्टियों को विचारधारा नहीं, सीढ़ी मानते हैं। जनता को भ्रमित करने की राजनीति चरम पर। दल बदलने वाले नेताओं की संख्या तेजी से बढ़ी।
दलबदलः लोकतंत्र से विश्वासघात
चुनाव में जनता किसी विचारधारा, मुद्दे और नेतृत्व पर भरोसा जताकर वोट देती है। लेकिन जब वही नेता कुछ ही महीनों में दल बदलकर दूसरी पार्टी में चले जाते हैं, तो यह सीधा-सीधा जनता के विश्वास और लोकतंत्र के साथ धोखा है। ऐसे नेता अपने फायदे के लिए उस जनादेश की धज्जियां उड़ा देते हैं, जो जनता ने उन्हें ईमानदारी से दिया था। इससे लोकतंत्र की आत्मा को ठेस पहुँचती है, और जनता ठगी-सी महसूस करती है।

भाषा का गिरता स्तर
राजनीति कभी भाषा की शुचिता का उदाहरण हुआ करती थी। संसद हो या विधानसभा, नेताओं के शब्द चयन से राष्ट्र की गरिमा झलकती थी। लेकिन आज हालात चिंताजनक हैं। टीवी डिबेट्स हों या सोशल मीडिया, हर जगह व्यक्तिगत हमले, तंज, व्यंग्य और गालियों का बोलबाला है। यह भाषा की मर्यादा नहीं, उसका मखौल बन चुकी है। बात संसद तक आ पहुँची है, जहां सार्वजनिक मंचों पर असभ्य भाषा का प्रयोग भी अब सामान्य हो चला है। यह केवल भाषा का पतन नहीं, युवा पीढ़ी के सामने गलत आदर्श स्थापित करने का खतरा भी है।
जब मर्यादा ही भुला दी गई
सोशल मीडिया बना गाली-गलौच का अखाड़ा। संसद में भी शालीनता का अभाव। युवा नेताओं की भाषा में संयम नहीं। लोकतंत्र की खूबसूरती सत्ता और विपक्ष दोनों की साझी भागीदारी में है। विपक्ष सरकार की नीतियों पर सवाल उठाता है, गलतियों को उजागर करता है और जनहित की आवाज बनता है।
लेकिन वर्तमान राजनीति में विपक्ष को दुश्मन के रूप में देखा जाने लगा है। आलोचना को ‘देशद्रोह’ की संज्ञा देना, विरोधी नेताओं को बदनाम करना, उनके ऊपर जांच एजेंसियों का दबाव बनाना, यह सब लोकतंत्र के लिए खतरनाक संकेत हैं। ‘हां’ कहने की संस्कृति ने ‘क्यों’ पूछने की लोकतांत्रिक ताकत को कुचलना शुरू कर दिया है।

जनता की भूमिकाः सोचो, समझो, चुनो
राजनीतिक गिरावट के लिए सिर्फ नेता जिम्मेदार नहीं हैं। जनता की भूमिका भी उतनी ही अहम है। जब हम जाति, धर्म या चेहरे देखकर वोट देते हैं, जब हम भ्रष्टाचार, असभ्य भाषा या दलबदल को माफ कर देते हैं, तब हम इस पतन में भागीदार बनते हैं। मुद्दों से हटकर भावनाओं पर आधारित मतदान लोकतंत्र को खोखला करता है। समस्या तब और बढ़ती है जब हम सवाल पूछना छोड़ देते हैं और चुप्पी साध लेते हैं।

जनता की चुप्पी सबसे खतरनाक
हम सवाल पूछने से कतराते हैं। सोच की जगह भावनाएं हावी हैं। योग्यता की जगह जाति-धर्म बना आधार। देश को एक नई राजनीति की जरूरत है, जहां नेता जवाबदेह हों, विचारधारा पर टिके रहें, भाषा मर्यादित हो और सत्ता की भूख पर संयम हो। इसके लिए जनता को सक्रिय होना होगा। हमें अपने प्रतिनिधियों से सवाल पूछने की आदत डालनी होगी। जाति और धर्म की राजनीति से ऊपर उठकर शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, किसान और पर्यावरण जैसे असली मुद्दों को प्राथमिकता देनी होगी। सोशल मीडिया के झूठ और अफवाहों से खुद को बचाकर सच और नीति को चुनना होगा। राजनीति गंदी नहीं होती, लेकिन जब हम गंदगी देखकर भी चुप रहते हैं, तो वह फैलती जाती है। समस्या नेताओं में नहीं, हमारी खामोशी में है। अब समय है कि हम अपने लोकतंत्र को नया जीवन दें, जागरूकता से, सवालों से, और सही चुनाव से। राजनीति को साफ और नीतिपरक बनाने का रास्ता जनता के विवेक से होकर ही जाता है।
-लेखक सामाजिक व राजनीतिक चिंतक तथा आईएमए राजस्थान के प्रदेशाध्यक्ष हैं




