
आर्किटेक्ट ओम बिश्नोई.
बात दो दशक पुरानी है। जिले के एक बड़े अफसर ने बुलाया और कहा कि शहर के एक चौक को ऐसे ‘रिनोवेट’ करना है कि लोग धरना लगा कर यहां रात न बिता पाएं।
अफसर की बात सुनकर मेरा चौंकना लाजिमी था। मैंने पूछा-‘सर, अगर लोग भगतसिंह के स्टेच्यू पर बैठकर धरना नहीं लगाएंगे तो कहां लगाएंगे?’ अफसर के चेहरे पर मुस्कुराहट तैरने लगी। बोले-‘ठीक कह रहे हैं आप। अपनी मांगों को लेकर विरोध जताना, धरना देना जनता का लोकतांत्रिक अधिकार है। हमारा मकसद उन्हें इससे वंचित करना नहीं बल्कि हम चाहते हैं लोग अपनी मांगों को लेकर कलेक्ट्रेट पर धरना दें ताकि हम सरकार तक बेहतर तरीके पहुंचा सकें। लोग बीच शहर में ना बैठें धरना देकर। शहर के लोगों को परेशानी न हो, इसलिए हमने ऐसा कहा।’
मौजूदा किसान आंदोलन पर सरकार का रुख देख दो दशक पुरानी बात याद आ गई। किसान अपनी मांगों को लेकर जाना चाहते हैं। उन्हें जगह-जगह बैरिकेड्स लगा रोका गया है। किसान रोष से भरे हैं, अपनीं मांगों को लेकर। उधर, ये बैरिकेड्स, कोढ़ में खाज यह कि पुलिस उन पर आंसू गैस के गोले बरसा रही है, रबर कि गोलियां चला रही है, इन सब के बहुत से वीडियो सोशल मीडिया में वायरल हो रहे हैं। आई.टी. युग में सब स्थाई रिकार्ड हो जाता है आजकल। स्थाई सबूत की तरह रहता है। हालांकि सबूत मिटाने का तरीका भी सरकार के पास ही है। फिर भी, सच तो सामने आ ही जाता है, एक बार।
पुलिस की अलग मुश्किल है। उसकी मूल और मुख्य ट्रेनिंग क्रिमिनल लोगों को टेकल करने को होती है न कि निहत्थे अपनी मांगों को लेकर प्रदर्शन कर रहे आम लोगों, किसानों, मजदूरों पर आंसू गैस ओर गोलियां बरसाने की होती है।
खैर, किसान अपनी फसलों के वाजिब दाम चाहते हैं। कानूनन गारंटी बना कर, स्वामीनाथन रिपोर्ट के आधार एम.एस.पी. चाहते हैं और एक बारगी में पूरी कर्जा मुक्ति चाहते हैं। और भी कुछ मांगें हैं किसानों की सरकार के सामने। कर्ज मुक्ति के पीछे किसानों का कहना ये कि उनकी फसलों के वाजिब दाम बरसों से नहीं मिल पा रहे और फसलों की लागत बढती जा रही है लगातार। किसानों की इस बात में वजन भी हैै किसान अपना पेट काट लोगों का पेट भर रहे हैं घाटे की खेती करके। किसान ये भी कह रहे हैं कि हमारा कर्जा तो चंद बड़े उद्योगपतियों के माफ किए बीसियों लाख करोड कर्जे का दस प्रतिशत भी नहीं है। किसान ये भी कह रहे हैं कि ग्रामीण भारत यानी मोटा-मोटी खेती किसानी वाला भारत आज भी पचास से साठ प्रतिशत लोगों को रोजगार गावों में दे रही है और उनका शहरों की तरफ पलायन कुछ हद तक रोके हुए है। जहां तक एमएसपी की बात है तो यह स्पष्ट है कि किसानों को जब बेहतर कीमत मिलेगी तो किसान जिन्हें रोजगार दे रहे हैं, सहायक के रुप में अपने खेतों में उन्हे स्वाभाविक रूप से अधिक मजदूरी दे पाएंगे। किसान और मजदूर के हाथ में अधिक लिक्विड मनी बाजार को तेज गति देगी और उनकी परचेज पावर बढाएगी, जिसका सीधा लाभ व्यापार और व्यापारियों को होगा।
सवाल यह है कि आखिर फिर एमएसपी को लेकर पेंच फंसा कहां है ? असल में पेंच कुछ अंतरराष्ट्रीय समझौतों व कुछ कॉर्पाेरेट लॉबी के दबाव में फंसा है जो नहीं चाहते कि ऐसा हो। वो चाहते हैं छोटी जोत के किसान घाटे की खेती से उकता कर खेती छोड निकल जाए शहरों की ओर। इन कार्पाेरेट के लिए सस्ते मजदूर बन जाएं। भारत के करीब 85 फीसद किसान छोटी जोत के ही हैं।
कॉर्पाेरेट का लंबा गोल खेती ओर भोजन पर कब्जा करना भी है। कृषि में उसे बहुत विशाल प्रोफिट बाजार दिखता है, इसलिए उसकी नजर किसानों की जमीन पर है। शायद मजबूत सरकार या सरकारें भी इन कार्पाेरेट और अंतर्राष्ट्रीय लॉबिस्ट के आगे नतमस्तक हैं। कारण है राजनीतिक दलों को चुनाव में पानी की तरह बहाए जाने वाला धन यानी चंदा इन्हीं कॉरपोरेट घरानों से आता है। यही चंद घराने भारत और दुनिया भर में सरकार पर दबाव बनाते हैं और धीरे-धीरे लोकशाही को बर्बाद करते हैं। मुझे आज के दौर में बचपन में सुनी कहावत ‘बहुआं कनूं चोर पकडावे, चोर बहू गा भाई’ चरितार्थ होती है। सच तो यही है कि किसान भी ये ‘चोर बहू’ वाला खेल समझने लगे हैं। धीरे-धीरे ही सही बार-बार राजधानियों में आ रहे हैं अपनीं मांगों को लेकर। बात चाहे भारत की करें या यूरोपीय यूनियन के देशों की। हालात तो एक जैसे ही हैं। बेशक।