


डॉ. एमपी शर्मा.
मेरा बचपन राजस्थान के एक छोटे-से गाँव सिकरोड़ी (तहसील भादरा, तत्कालीन जिला श्रीगंगानगर, अब हनुमानगढ़) में बीता। वहाँ की खुली हवाओं, मिट्टी की सोंधी खुशबू और रिश्तों की गर्माहट आज भी मन को छू जाती है। हमारा परिवार संयुक्त था, ताऊजी ऊदमी राम जी परिवार के मुखिया थे और मेरे पिता मनफूल राम जी खेती संभालते थे। ताऊजी व चाचा राजेंद्र कुमार जी व मनोहर लाल जी सरकारी सेवा में थे। खेती, पशुपालन, पढ़ाई, सब कुछ सामूहिक रूप से होता था। ग्यारहवीं तक की पढ़ाई गाँव में ही हुई, और हर दिन जीवन से कुछ सिखाता गया। लेकिन आज, सब पढ़-लिखकर अलग-अलग शहरों में बस चुके हैं। गाँव की वो रौनक, वो शोरगुल, वो सामूहिकता, जैसे किसी पुरानी किताब के पन्नों में सिमट गई हो।
संयुक्त परिवार केवल एक सामाजिक व्यवस्था नहीं, बल्कि वह संस्कारों की पाठशाला है, जहाँ हर पीढ़ी एक-दूसरे से सीखती है। मेरे गाँव में हमारा घर सिर्फ ईंट-पत्थरों से बना मकान नहीं था, बल्कि जीवंत रिश्तों का आशियाना था, जहाँ सुबह की चाय सबके साथ, खेत की बातें दाल-रोटी के साथ, और रात की कहानियाँ चाँदनी के नीचे होती थीं।

अब जब पीछे मुड़कर देखता हूँ, तो पाता हूँ कि शिक्षा और नौकरी ने हमें गाँव से शहरों तक पहुँचा दिया। स्वतंत्रता और निजता की चाह ने हमें अलग-अलग मकानों तक सीमित कर दिया, और व्यक्तिवादी सोच ने संयुक्त परिवारों को ‘स्मृति’ बना दिया। संयुक्त परिवारों के टूटने के साथ हमने सुविधाएँ तो पाईं, लेकिन रिश्तों की वह गहराई कहीं खो गई।
क्या वास्तव में हम आगे बढ़े हैं? हम आधुनिक तो हो गए, पर क्या रिश्तों के मामले में समृद्ध भी हुए हैं? संयुक्त परिवारों में बुजुर्गों को सम्मान मिलता था, बच्चों को जड़ों से जुड़ाव और युवाओं को मार्गदर्शन। अब भले ही तकनीक ने दूरी मिटाई है, लेकिन दिलों के बीच की दूरी बढ़ती चली गई है।
संयुक्त परिवार आज के युग में भी बनाए जा सकते हैं, थोड़े बदलाव के साथ। सप्ताहांत मिलन की परंपरा शुरू करें। पारिवारिक निर्णय सामूहिक रूप से लें, भले ही हम दूर-दूर हों। गाँव को फिर से केंद्र बनाएं, समय-समय पर वहाँ एकत्रित होकर यादों को ताज़ा करें। और सबसे जरूरी, रिश्तों में संवाद बनाए रखें, क्योंकि संवाद से ही संबंध जीवित रहते हैं।
गाँव मुझे आज भी बुलाता है। उस आँगन की धूप, वो बैलों की जोड़ी, वो खाट पर बैठकर गुड़ चबाना, सब कुछ आज भी मन में ज़िंदा है। संयुक्त परिवार केवल बचपन की याद नहीं, आने वाली पीढ़ियों के लिए एक दिशा है। यदि हम चाहें, तो इस बदलते समय में भी संयुक्तता की भावना को जीवित रख सकते हैं, ज़रूरत है तो बस थोड़े प्रयास, थोड़े समर्पण और रिश्तों को प्राथमिकता देने की। संयुक्त परिवार टूटे नहीं, बदले, और फिर से बनें। यही प्रयास हो, यही संकल्प हो।
-लेखक जाने-माने सीनियर सर्जन और इंडियन मेडिकल एसोसिएशन राजस्थान के प्रदेशाध्यक्ष हैं



