





राजेन्द्र सारस्वत.
मैं अक्सर यह सोचता हूं कि अगर इस दुनिया में लोगों के भीतर आगे बढ़ने की ललक न होती, कुछ नया कर गुजरने की चाह न होती, जीवन को बेहतर बनाने का जूनून न होता, तो क्या आज का मानव समाज इतना विकसित, इतना सुसंस्कृत और इतना सुविधासम्पन्न होता? क्या विज्ञान, तकनीक, चिकित्सा और संचार के क्षेत्र में आज जो चमत्कार हैं, वे संभव हो पाते?
मेरे मन की गहराई इस तथ्य को स्वीकार नहीं कर पाती कि बिना ऊँचे विचारों और बड़े इरादों के कोई भी बड़ा मुकाम हासिल किया जा सकता है। यह तो इतिहास का सत्य है, जो कुछ नया, ऊँचा और अनोखा रचते हैं, वही कालजयी बनते हैं। वही समय के साथ संघर्ष करते हैं और वही समय के पन्नों में दर्ज होते हैं।
स्वामी विवेकानंद ने स्पष्ट कहा था, ‘छोटे लक्ष्य रखना, अपने आप के साथ अन्याय करना है।‘ हमारी सोच बदलती है तो सृष्टि बदलती है। लक्ष्य ऊँचा हो तो राहें भी खुद-ब-खुद बन जाती हैं। मैं जब भी कुछ लिखने बैठता हूं, तो भीतर एक संशय-सा पैदा होता है कि कहीं लोग मेरे लिखे का गलत मतलब न निकाल लें। लोग आलोचना को अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं। मैं अक्सर कहता हूं, यह सिर्फ मेरे विचार हैं, उपदेश नहीं। न मैं कोई महाज्ञानी हूं, न कोई मार्गदर्शक, एक सामान्य सोचने वाला व्यक्ति हूं। हां, मेरी सोच थोड़ी अलग हो सकती है।
पर एक बात समझ ली है, जो कुछ नहीं करना चाहते, उनका काम ही दूसरों को करने से रोकना होता है। यदि थॉमस एडिसन, गैलीलियो, न्यूटन या राइट ब्रदर्स आलोचनाओं से डर जाते, तो न हम आज उजाले में होते, न आकाश में उड़ान भर पाते। इतिहास साक्षी है, नई सोच रखने वालों ने ही नया युग रचा है।
अब आइए, विषय की गहराई को स्पर्श करें। सफलता उन्हें मिलती है, जिनके लक्ष्य ऊँचे होते हैं। जिनमें जोखिम उठाने का साहस होता है, जो बतखों के साथ तालाब में तैरने की बजाय, आकाश में उड़ने का सपना देखते हैं।
राजस्थानी कहावत है, ‘ओछी पूंजी धणी नै खाय।’ अर्थात छोटी सोच, छोटे संसाधन और छोटा दृष्टिकोणकृसिर्फ आत्मसंतोष दे सकता है, प्रगति नहीं। एक प्रेरक कथा याद आती है, एक देश के राष्ट्रपति जेल का निरीक्षण करने पहुंचे। निरीक्षण के बाद एक खुला दरबार लगाया गया। कैदी अपनी मांगें रख सकते थे।
किसी ने मांगा, ‘हाफ पैंट की जगह फुल पैंट दी जाए।’ मिल गया। किसी ने कहा, ‘सप्ताह में एक की जगह दो बार मिठाई दी जाए।’ स्वीकृत हो गया। एक ने कहा, ‘कमरों की सफेदी करवाई जाए, मनोरंजन के लिए टीवी लगाया जाए।’ हर किसी की छोटी-मोटी मांगें पूरी कर दी गईं। लेकिन एक कैदी चुपचाप कोने में खड़ा रहा। राष्ट्रपति खुद उसके पास पहुंचे और पूछा, ‘तुम कुछ क्यों नहीं मांगते?’
कैदी ने हाथ जोड़कर कहा, ‘राष्ट्रपति जी, मुझसे एक गलती हुई, जिसकी बड़ी सजा मैं भुगत चुका हूं। मैंने पश्चाताप कर लिया है। कृपया मुझे जेल से मुक्ति दें।’
राष्ट्रपति ने तत्काल आदेश दिया, ‘इस बंदी को रिहा किया जाए।’ बाकी सभी कैदी स्तब्ध रह गए। जो फुल पैंट, मिठाई और टीवी मांग रहे थे, वे अब पछता रहे थे।
काश! उन्होंने भी मुक्ति मांगी होती।
यह कथा यही सिखाती है, बड़ा मांगो, ऊँचा सोचो। छोटे लक्ष्य हमें तात्कालिक सुविधा दे सकते हैं, लेकिन स्थायी समाधान नहीं। शायर वसीम बरेलवी ने कहा है,
‘वही सोचें बहुत छोटी वही दावा बड़ाई का,
हमीं मौका दिये जाते हैं अपनी जग हँसाई का।’
इसलिए सोच को बड़ा कीजिए, दृष्टिकोण को ऊँचा कीजिए। जो जीवन में ऊँचाइयां छूते हैं, वे पहले अपने विचारों को ऊँचा करते हैं।
-लेखक स्वतंत्र पत्रकार व स्तंभकार हैं




