





राजेश चड्ढ़ा.
सत्रहवीं सदी दे दौरान पँजाब दे लाहौर शहर विच जन्मे अब्दुल्लाह यानी बाबा बुल्लेशाह ने सूफ़ी लहर नू इक नवाँ मोड़ दिता है। बाबा बुल्लेशाह तों पहलाँ शाह हुसैन अते सुल्तान बाहू ने पंजाबी सूफ़ी साहित्य दी मज़बूत नींव तैयार कीती सी, जिस ते बाबा बुल्लेशाह ने मोहब्बत अते रहस्यवाद दे सुनक्खे फुल खिड़ाये अते अपने बाद औन वाले सूफ़ियाँ लयी चादर ज्यों दी त्यों धर दिती।
बुल्लेशाह दियाँ लिखताँ ने हमेशा ही पंजाबी साहित्य दी सृजना दा मार्गर्दशन कीता है। एही वजह है कि बुल्लेशाह नू पंजाबी साहित्य विच बहुत उच्चा स्थान प्राप्त है। बाबा बुल्लेशाह दे धार्मिक फलसफे दा सर्वव्यापक उपदेश आम लोकाँ दे जीवन नाल बहुत जुड़ेया होया है। बुल्लेशाह ने अपनियाँ विशाल लिखताँ विच जीवन दे वख-वख सिद्धांताँ नू सदीवी सच्चाइयाँ वजहों बहुत गहराई नाल स्थापित कीता है। उन्हाँने अपने अहंकार नू ख़त्म करन ते सब तों वध ज़ोर दिता है। बुल्लेशाह दे अनुसार जद तक इंसान विच अहंकार है तद तक परम शक्ति नू कोई छू वी नही सकदा। केहा जाँदा है कि इक वार बुल्लेशाह बटाला पहुँचे ताँ अचानक कहना शुरू कर दिता, मैं अल्ला हाँ ! मैं अल्ला हाँ ! पँजाबी विच ‘अल्ला’ कच्चे नू कहँदे हन।

ओत्थे मौजूद लोक बुल्ले नू हैरानी नाल देखन लग पये। बटाला उस वक्त सूफ़ियाँ दा केंद्र होया करदा सी। इस सिलसिले दे संस्थापक फाज़िलुद्दीन सन। लोक बुल्लेशाह नू लैके उन्हाँ कोल पहुँचे। उन्हाँ ने बुल्लेशाह नू देखदेयाँ ही फ़रमाया- तूँ ठीक ही कह रेहा हैं बुल्लेया, तूँ अजे कच्चा हैं इस लयी शाह इनायत कोल जा, ओ ही तेरी मंज़िल है। बस ओसे वक्त बुल्लेशाह ने ओत्थों लाहौर दी राह फड़ लयी।
शाह इनायतुल्लाह क़ादरी जात दे अराईं सन अते लाहौर दे शालीमार बाग़ दे मुख माली सन। जद बुल्लेशाह अपने मुर्शिद शाह इनायत दे कोल पहुँचे ताँ शाह इनायत प्याज दियाँ क्यारियाँ ठीक कर रहे सन। बुल्लेशाह ने उन्हाँ नू देखदे ही पूछेया-
शाह जी रब किवें पावाँ?
शाह साहब ने हसदे होये केहा,
बुल्लेआ रब दा की पौणा
एधरों पुटणा ते ओधर लौणा
यानी मन नू सांसारिक वस्तुआँ तों हटा के रब विच ला दे फेर रब यकीनन मिल जायेगा।
ओस दिन तों बाद, दूजी वार जद बुल्लेशाह अपने मुर्शिद शाह इनायत नाल मिलन पहुँचे ताँ शालीमार बाग़, आँब दे दरख्ताँ नाल भरेया होया सी। सारे दरख्त, अम्बाँ नाल लदे होये सन। बुल्लेशाह नू भुक्ख वी लगी सी पर बुल्ले नू बाग़ दे मालिक तों बगैर पुच्छे आँब तोड़ना वी मँज़ूर नहीं सी। उन्हाँ ने आँब दे दरख्त वल देखेया अते केहा-अल्लाह ग़नी यानी अल्लाह अमीर है, एह कहँदेया ही इक आँब टुट के बुल्ले दी हथेली ते डिग पेया। बुल्ले ने फेर केहा अते इस तरहाँ कुज आँब इकट्ठे कीते अते इक दरख्त दे हेठाँ बैह के खाने शुरू कर दिते। अजे बुल्ले ने खाना शुरू ही किता सी कि कुज पहरेदार आये अते बुल्ले नू फड़ लेया।

बुल्लेशाह ने उन्हाँ दे सामने ही इक वार फेर अल्लाह ग़नी केहा अते इक आँब हेठाँ डिग पेया। ओसे वक्त ओत्थे शाह इनायत आ गये। उन्हाँ ने जद एह देखेया ताँ फ़रमाया अजे मँगन विच कमी है। एह कह के उन्हाँ ने अपना हाथ उत्ते चुकेया अते केहा-अल्लाह ग़नी ! देखदे ही देखदे आँब गिरने शुरू हो गए। सारे दरख्ताँ तों इन्ने आँब डिगे कि पूरा दा पूरा बाग़ भर गया।
इन्हाँ कहानियाँ विच किन्नी सच्चाई है एह ताँ नहीं पता पर बुल्लेशाह ने शाह इनायत नू अपना गुरु मन्न लेया अते बुल्ले दी आध्यात्मिक यात्रा शुरू हो गयी। बुल्लेशाह ने केहा,
मेरा मुर्शिद शाह इनायत
ओह लंघाई पार।

दरअसल बुल्लेशाह सैयद सन अते उन्हाँ दे मुर्शिद अराईं। एस मेल ने सामाजिक ताने-बाने नू हिला के रख दिता। सदियाँ तों जातिवाद अते धार्मिक कट्टरता ने समाज नू जकड़ेया होया सी। समाज ने विरोध कीता। एह विरोध सिर्फ़ समाज विच ही नहीं सगों समाज दी सब तों छोटी इकाई, परिवार विच वी शुरू हो गया। परिवार दे मैंबराँ ने बुल्लेशाह नू सलाह दिती के किसी ऊच्ची ज़ात दा गुरु लभ लवे। पर इक वार जद मुर्शिद दा रंग चढ़ जाँदा है ताँ फेर सारे रंग फिक्के पै जाँदे हन। बुल्लेशाह अपने पीर दे रंग विच रंग चुके सन. सामाजिक रंग कच्चे सन अते उन्हाँ दा मुर्शिद पक्का सी। बुल्लेशाह ने कहा-
बुल्ले नूं समझावण आइयाँ
भैणा ते भरजाइयाँ
मन्न लै बुल्लेआ साडा कहणा
छड दे पल्ला, राइयाँ.
आल नबी औलाद अ’ली नूं
तूं क्यों लीकाँ लाइयाँ?
बुल्लेशाह ने इस दा जवाब वी अपने ही अंदाज़ विच दिता-
जेहड़ा सानूँ सैयद आखे
दोजख मिलण सजाइयां
जो कोई सानूँ, राईं आखे
भिश्ती पींघाँ पाइयाँ।
यानी जेड़ा सानूँ सैयद कहेगा उस नू दोजख (नर्क) दी सजा मिलेगी अते जेड़ा सानू अराईं कहेगा उस नू बिहिश्त (स्वर्ग) दे झूले झूलन दा मौका मिलेगा। केहा जाँदा है कि बुल्लेशाह दे घर विच किसे दा व्याह सी। बुल्लेशाह ने अपने मुर्शिद नू वी सद्दा भेजेया। मुर्शिद खुद ताँ नहीं आ सकदे सन, उन्हाँ ने अपने इक मुरीद नू व्याह विच भेज दिता। मुरीद ने फटी होयी इक गुदड़ी पायी होयी सी। सैयदाँ दा घर अते ओत्थे इक फटेहाल अराईं। सब नू एह गल बहुत बुरी लगी। बुल्लेशाह इस उपराले विच इन्ना रुझ गये कि उन्हाँ ने अपने पीर भाई वल ध्यान ही नहीं दिता। मुरीद व्याह तों वापस अपने पीर कोल आया अते उस नू सब कुज दस दिता। मुर्शिद ने जद एह सुनेया ताँ बहुत गुस्से विच आ गये अते केहा-मैं बुल्ले दा मूँह फेर कदे नहीं देखाँगा।

एह बहुत वड्डी गल सी ! मुर्शिद आप रुस्स गये।
बुल्लेशाह लयी हुन सारियाँ आवाज़ाँ सिर्फ़ शोर सन। बुल्लेशाह ने आखेया-
सानू मिट्ठा न लगदा शोर
हुन मैं ते राज़ी रहना
बाबा बुल्लेशाह किसे वी तरीके नाल अपने मुर्शिद नू खुश करन दी कोशिश करन लगे। बाबा बुल्लेशाह नू पता लगेया कि मुर्शिद नू नृत्य अते सँगीत बहुत पसँद है। बुल्लेशाह ने इक नर्तकी कोल जा के उस तों नृत्य अते सँगीत सिखेया। इक दिन शाह इनायत किसे सूफ़ी बुज़ुर्ग दे उर्स ते पहुँचे। ओत्थे बहुत सारे क़व्वाल कलाम सुना रहे सन। बुल्लेशाह ने अपने मुर्शिद दी याद विच कई काफ़ियाँ लिखियाँ सन। बुल्लेशाह वी ओत्थे बैह गये अते करुण आवाज़ विच गौन लग पये। उन्हाँ दे बोलाँ विच इन्ना दर्द सी कि मुर्शिद तों रेहा नहीं गया। मुर्शिद ने पूछेया-की तूँ बुल्ला हैं ? बुल्लेशाह ने जवाब दिता-नहीं हज़रत ! मैं भुल्ला (भटकेया)हाँ !
मुर्शिद ने बुल्लेशाह नू जफ्फी पा लयी। उस तों बाद बुल्लेशाह सारी उम्र अपने मुर्शिद दे नाल ही रहे। बाबा बुल्लेशाह द्वारा स्थापित परँपरा नू उन्हाँ तों बाद वारिसशाह, ग़ुलाम फ़रीद अते मियाँ मुहम्मद बख्श वरगे सूफ़ियाँ ने होर ज़्यादा अमीर कीता।
-लेखक जाने-माने महबूब शायर और आकाशवाणी के पूर्व वरिष्ठ उद्घोषक हैं


