





डॉ. नीतिश कुमार वशिष्ठ.
भारतीय संस्कृति में विवाह न केवल दो व्यक्तियों का, बल्कि दो आत्माओं का, दो परिवारों का और दो कुलों का आध्यात्मिक और सामाजिक मिलन होता है। इस पवित्र बंधन को निभाने और संवारने के लिए स्त्रियां सदा से ही त्याग, तपस्या और श्रद्धा का अनुपम उदाहरण रही हैं। इसी समर्पण, श्रद्धा और अटूट पतिव्रता धर्म का प्रतीक है वट सावित्री व्रत, जो हिंदू पंचांग के अनुसार ज्येष्ठ मास की अमावस्या को मनाया जाता है। यह व्रत न केवल एक धार्मिक अनुष्ठान है, बल्कि भारतीय नारी की शक्ति, निष्ठा और आत्मबल का उत्सव भी है।
व्रत की परंपरा और पूजा विधि
वट सावित्री व्रत के दिन विवाहित महिलाएं अपने पति की दीर्घायु, आरोग्य और सुख-समृद्धि के लिए निर्जला उपवास रखती हैं। वे प्रातःकाल स्नान कर व्रत संकल्प लेती हैं और बरगद (वट) वृक्ष की पूजा विधिपूर्वक करती हैं। वे वृक्ष के चारों ओर कच्चा सूत (धागा) लपेटते हुए परिक्रमा करती हैं और कथा का श्रवण करती हैं। पूजा में लाल वस्त्र, चूड़ी, सिंदूर, मंगलसूत्र और श्रृंगार सामग्री का विशेष महत्व होता है, जो अखंड सौभाग्य का प्रतीक मानी जाती हैं।
धार्मिक मान्यता के अनुसार, वट वृक्ष में त्रिदेव, ब्रह्मा, विष्णु और महेश का वास होता है। यह वृक्ष जीवन, शक्ति और अक्षय पुण्य का प्रतीक है। इस दिन वट वृक्ष की छाया में बैठकर व्रत कथा सुनना और परिक्रमा करना विशेष पुण्यदायक माना जाता है।

एक पतिव्रता स्त्री की अमर गाथा
बहुत समय पहले की बात है। मद्रदेश के प्रतापी राजा अश्वपति की कोई संतान नहीं थी। वर्षों की तपस्या और संकल्प के बाद उन्हें एक तेजस्विनी पुत्री प्राप्त हुई, जिसका नाम सावित्री रखा गया। सावित्री जन्म से ही अत्यंत सुंदर, बुद्धिमती, संस्कारी और दृढ़ चरित्र वाली कन्या थी। जब वह विवाह योग्य हुई, तो पिता ने योग्य वर के चयन का अधिकार उसे सौंपा।
सावित्री ने राजा द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान को अपना जीवनसाथी चुना, जो वनवासी और धर्मात्मा थे। परंतु जब देवऋषि नारद ने यह समाचार सुना तो वे राजा अश्वपति से कहने आए, ‘राजन! सत्यवान निश्चित रूप से गुणवान, परोपकारी और धर्मनिष्ठ हैं, परंतु दुर्भाग्यवश वह अल्पायु हैं और एक वर्ष के भीतर ही उनकी मृत्यु निश्चित है।’
यह सुनकर राजा चिंतित हो उठे और उन्होंने सावित्री को किसी अन्य वर को चुनने का आग्रह किया। किंतु सावित्री ने दृढ़ता से कहा,‘ आर्य कन्याएं एक बार पति का वरण करती हैं, और मैं सत्यवान को ही अपना पति स्वीकार कर चुकी हूं। अब चाहे जो भी हो, मैं अपने निर्णय से पीछे नहीं हटूंगी।’
राजा अश्वपति को अंततः उसकी इच्छानुसार विवाह की अनुमति देनी पड़ी। विवाह के बाद सावित्री अपने सास-ससुर के साथ वन में रहकर सेवा में लग गई। समय बीतता गया, और सत्यवान की मृत्यु की नियत तिथि धीरे-धीरे निकट आने लगी।
सावित्री ने उस दिन से तीन दिन पूर्व कठोर व्रत आरंभ कर दिया। जैसे-जैसे वह दिन आया, उसका ध्यान और संयम और भी प्रबल होता गया। जिस दिन नारद ने मृत्यु की भविष्यवाणी की थी, उसी दिन सत्यवान वन में लकड़ियां काटने गया, और सावित्री भी सास-ससुर की आज्ञा लेकर उसके साथ गई।
वन में सत्यवान को तेज सिरदर्द हुआ और वह बेहोश होकर गिर पड़ा। सावित्री ने उसे वट वृक्ष की छाया में अपनी गोद में लिटाया। तभी यमराज उसके प्राण हरने के लिए उपस्थित हुए। सावित्री ने यमराज से विनती की कि वह अपने पति के साथ जाना चाहती है। यमराज ने उसे लौटने को कहा, परंतु सावित्री ने उत्तर दिया, ‘“जहां पति हैं, वहीं धर्म है। पत्नी का धर्म है कि वह पति के साथ चले, चाहे वह मृत्यु क्यों न हो।’ यमराज उसकी धर्मनिष्ठा और दृढ़ता से प्रभावित हुए और बोले, ‘तुम सत्यव्रता हो। मांगो, तुम्हें एक वरदान देता हूं, परंतु सत्यवान के प्राण नहीं।’ सावित्री ने अपने अंधे सास-ससुर के नेत्र ठीक होने और दीर्घायु की कामना की। यमराज ने तथास्तु कहा और आगे बढ़े। लेकिन सावित्री पीछे-पीछे चलती रही।
यमराज ने फिर उसे लौटने को कहा। इस बार उसने अपने ससुर का खोया हुआ राज्य लौटाने का वरदान मांगा। यह वर भी यमराज ने दे दिया। फिर भी सावित्री रुकी नहीं। तीसरी बार जब यमराज ने वरदान मांगने को कहा, तो सावित्री बोली, ‘मुझे सौ पुत्रों की मां बनने का वर दीजिए।’ यमराज ने तथास्तु कहा और आगे बढ़ गए। तभी सावित्री ने बड़ी चतुराई से कहा, ‘प्रभु! आपने मुझे सौ पुत्रों की मां बनने का वरदान दिया है, पर पति के बिना यह कैसे संभव होगा? कृपया सत्यवान के प्राण लौटाइए।’ अब यमराज को सावित्री की बुद्धिमता, निष्ठा, साहस और धर्मबुद्धि का पूर्ण आभास हो चुका था। उन्होंने सत्यवान को जीवनदान दे दिया और प्रसन्न होकर चले गए।
व्रत का फल और परंपरा की शुरुआत
सावित्री सत्यवान के प्राण लेकर वट वृक्ष के नीचे लौटी और उसके मृत शरीर को छूते ही वह जीवित हो उठा। दोनों साथ लौटे। सास-ससुर की आंखों की ज्योति लौट आई। खोया हुआ राज्य वापस मिल गया और परिवार सुख-समृद्धि से भर गया। इसी अटल नारी संकल्प और पतिव्रता धर्म की विजय की स्मृति में वट सावित्री व्रत का प्रचलन हुआ। यह व्रत भारतीय संस्कृति में नारी के तप, श्रद्धा, प्रेम और आत्मबल का जीवंत प्रतीक बन गया।
वट वृक्ष की छांव में श्रद्धा का संकल्प
वट सावित्री व्रत केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि यह उस भारतीय नारी चेतना की पराकाष्ठा है जो अपने प्रेम, संकल्प और आस्था से मृत्यु को भी पराजित कर सकती है। आज जब हम वट वृक्ष की परिक्रमा करते हैं, तो यह केवल एक परंपरा नहीं, बल्कि सावित्री की दृढ़ता, बुद्धिमता और प्रेम का वंदन है। यह व्रत हमें याद दिलाता है कि सच्चा प्रेम और निष्ठा ईश्वर को भी विवश कर सकती है।
शुभ वट सावित्री व्रत। अखंड सौभाग्य की मंगलकामनाएं।
-लेखक वशिष्ठ ज्योतिष परामर्श केंद्र के संस्थापक हैं




