




ओम पारीक.
पश्चिमी राजस्थान इन दिनों पानी के संकट से जूझ रहा है। नहरबंदी के दो माह ने ही हनुमानगढ़ व श्रीगंगानगर सहित करीब 12 जिलों की नींद उड़ा दी है। गर्मी चरम पर है और लोगों को पीने तक का पानी मयस्सर नहीं। यह स्थिति अचानक नहीं बनी, बल्कि वर्षों से चली आ रही हमारी जल प्रबंधन की लापरवाही और पारंपरिक संसाधनों की उपेक्षा का परिणाम है।
पानी के लिए राजस्थान में इंदिरा गांधी नहर परियोजना जैसी विशाल योजनाओं पर भारी-भरकम खर्च किया गया। लेकिन इन बड़ी योजनाओं की चमक में छोटी-छोटी पारंपरिक जल प्रणालियों, जैसे तालाब, जोहड़, कुंड, बावड़ी, कूएँ को पूरी तरह भुला दिया गया। इन योजनाओं ने जब तक पानी दिया, लोगों ने वैकल्पिक सोचने की जरूरत ही नहीं समझी। आज हालत यह है कि नहरों पर पूरा पश्चिमी राजस्थान निर्भर हो गया है। जैसे ही नहर में पानी आना बंद होता है, गाँव-कस्बों से लेकर शहर तक त्राहि-त्राहि मच जाती है।
शहरों का गंदा पानी
पानी की मांग तो बढ़ती गई, मगर उसके संरक्षण की कोशिशें घटती रहीं। नदियाँ जो कभी जीवनदायिनी हुआ करती थीं, आज बड़े शहरों की सीवरेज निकासी की शिकार हैं। नहरों में जो पानी आ भी रहा है, उसकी गुणवत्ता इतनी खराब हो चुकी है कि वह पीने लायक नहीं बचा। यह गंभीर स्वास्थ्य संकट को जन्म दे रहा है।
कुंड और वर्षाजल संचयन की अनदेखी
विशेषज्ञों का मानना है कि हर घर अगर 10-15 फुट गहरे कुंड का निर्माण कर ले और उसमें वर्षाजल संचित करे, तो साल भर पीने योग्य पानी आसानी से उपलब्ध हो सकता है। यह व्यवस्था न केवल शुद्ध जल प्रदान करेगी, बल्कि स्वास्थ्य पर होने वाले खर्च को भी घटाएगी। आज हर घर पक्का है, छतें हैं, पानी की भरपूर आवक है, मगर संचयन की सोच नहीं है। नतीजा, बरसात में बाढ़ के हालात और साल भर प्यास। राज्य के जल संसाधनों पर निर्माण, उद्योग, कृषि और घरेलू आवश्यकताओं का दबाव लगातार बढ़ रहा है। भूजल स्तर खतरनाक स्तर तक गिर चुका है और प्राकृतिक जल स्रोत या तो सूख चुके हैं या अतिक्रमण की भेंट चढ़ चुके हैं। अब न तो नदियाँ हमारी हैं, न वर्षा जल, न ही भूजल। ऐसे में जल संकट अब सिर्फ गर्मी की समस्या नहीं, बल्कि अस्तित्व का प्रश्न बन गया है।
क्या करें?
पारंपरिक जल स्रोतों का पुनरुद्धार किया जाए। वर्षाजल संचयन को हर घर की आवश्यकता बनाया जाए। नहरों पर निर्भरता घटाकर स्थानीय जल स्रोतों को मजबूत किया जाए। जल प्रदूषण को रोकने के लिए सख्त नियम लागू किए जाएं। जल संकट अब आने वाला नहीं, बल्कि द्वार पर खड़ा है। समय रहते चेत गए, तो भविष्य बच सकता है। वरना यह सभ्यता खुद अपने ही पानी में डूब जाएगी। पानी अब केवल संसाधन नहीं, जीवन की अंतिम सीमा बन चुका है। इसलिए जरूरी है, जल को समझें, सहेजें और साझा करें।



